श्रीभगवानुवाच।
इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे।
ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ॥1॥
श्रीभगवान्-उवाच-परम प्रभु ने कहा; इदम्-इस; तु–लेकिन; ते-तुमको; गुह्य-तमम् अत्यन्त गूढ़ प्रवक्ष्यामि मैं प्रदान करूँगा अनसूयवे-ईर्ष्या न करने वाला; ज्ञानम्-ज्ञान; विज्ञान-अनुभूत ज्ञान; सहितम्-सहित; यत्-जिसे; ज्ञात्वा-जानकर; मोक्ष्यसे मुक्त हो सकोगे; अशुभात्– भौतिक संसार के कष्ट।
BG 9.1: परम प्रभु ने कहाः हे अर्जुन! क्योंकि तुम मुझसे ईर्ष्या नहीं करते इसलिए मैं तुम्हें विज्ञान सहित परम गुह्म ज्ञान बताऊँगा जिसे जानकर तुम भौतिक जगत के कष्टों से मुक्त हो जाओगे।
Start your day with a nugget of timeless inspiring wisdom from the Holy Bhagavad Gita delivered straight to your email!
इस विषय पर प्रारम्भ में ही श्रीकृष्ण उनके इन उपदेशों को सुनने की पात्रता के संबंध में बताते हैं। 'अनसूयवे' शब्द का तात्पर्य 'इर्ष्या न करने' से है। श्रीकृष्ण इसे इसलिए स्पष्ट करना चाहते हैं क्योंकि भगवान यहाँ अपनी अतिशय महिमा का वर्णन कर रहे हैं।
'अनसूयवे' शब्द का एक अन्य अर्थ 'जो घृणा नहीं करता है' भी है। वे श्रोता जो श्रीकृष्ण का इसलिए उपहास उड़ाते हैं क्योंकि वे यह विश्वास करते हैं कि श्रीकृष्ण डींग मार रहे हैं इसलिए उन्हें श्रीकृष्ण के उपदेशों का श्रवण करने से कोई लाभ प्राप्त नहीं होगा। निःसंदेह भगवान के संबंध में ऐसा सोचकर-'देखो इस अहंकारी मनुष्य को यह अपनी प्रशंसा स्वयं कर रहा है', वे स्वयं को हानि पहुँचाते हैं।
ऐसी मनोवृति अज्ञान और घमंड के कारण उत्पन्न होती है और इससे मनुष्य की श्रद्धा भक्ति समाप्त हो जाती है। ईर्ष्यालु लोग इस अटल सत्य को ग्रहण नहीं कर सकते कि भगवान को अपने लिए कुछ प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं होती और इसलिए वे अकारण जीवात्मा के कल्याण के लिए ही सब कुछ करते हैं। वे जीवात्मा में अपनी भक्ति बढ़ाने के प्रयोजनार्थ अपनी प्रशंसा करते हैं न कि सांसारिक अहंभाव के दोष के कारण जैसा कि हम करते हैं। जब नाज़रेथ के यीशू मसीह ने कहा-"मैं ही मार्ग और मैं ही लक्ष्य हूँ" तब वे उनके उपदेश सुन रही जीवात्माओं को करुणा भाव से प्रेरित होकर ऐसा कह रहे थे न कि अहं भाव से। एक सच्चे गुरु के रूप में वे अपने शिष्यों को समझा रहे थे कि भगवान का मार्ग गुरु के माध्यम से मिलता है किन्तु ईर्ष्यालु मनोवृत्ति के लोग इन उपदेशों के पीछे छिपी करुणा को नहीं समझ सकते और उन पर आत्म-दंभी होने का दोषारोपण करते हैं। क्योंकि अर्जुन उदारचित्त है और ईर्ष्या के दोष से मुक्त है इसलिए वह गुह्यत्तम ज्ञान को जानने का पात्र है जिसे भगवान श्रीकृष्ण इस अध्याय में प्रकट कर रहे हैं।
दूसरे अध्याय में श्रीकृष्ण ने आत्मा के ज्ञान की व्याख्या शरीर से भिन्न एक विशिष्ट इकाई के रूप में की थी। सातवें और आठवें अध्याय में उन्होंने अपनी परम शक्तियों की व्याख्या की है जोकि गुह्यतम ज्ञान है और अब इस नौवें और इसके बाद के अध्यायों में श्रीकृष्ण अपनी विशुद्ध भक्ति का ज्ञान प्रकट करेंगे जो कि गुह्यतम या अत्यन्त गोपनीय ज्ञान है।